और मैं मुस्कुरा कर उसके पास बैठ गया

कैसे  शुरू  करना  सही रहेगा... क्युकी  सही  ग़लत  के  तराजू  से  ऊपर  है  ये.  कोई स्वीकर कर ले  और  सही  कह  दे,  ये  तो  लेखक ने चाहा  ही  नहीं.  लेखक  अपनी बात  को  रख  पाए  शायद  यही  काफ़ी  है. अपने  शब्दों  से  उन  लम्हों को  जीवित कर  दे और दूसरों  को  प्रभावित  कर  दे,  पढ़ने  वाला  ख़ुद को  उनमे  देख पाए,  यही  शायद  इनाम  होगा,  क्योंकि  असल लम्हा  तो  लेखक  ने  जी  लिया  है. 
आज  सुबह  से  ही  मन  बड़ा  खुश  खुश  था,  यू  ही,  बेवजह. घर  से  दूर  किसी  और  शहर  मे  अकेले  रहना , अपने  आप  मे  एक  उबाऊ  काम  है,  लेकिन  किसी  को  आस पास  देख  कर  आपका  दिन  अच्छे  से  गुजरता  है,  आपको  खुशी  होती है, तो  फ़िर  सारी  चीजे  एक  तरफ  और  वो  सारे  पल  एक  तरफ.  
आप  जिसको  सोच  रहे  हो,  वो  आपको  ही  देखता  मिल  जाए,  झुकी  नजरों  से  आप  जिसको  ढूँढ  रहे  हो,  उसी  से  नजरें मिल  जाए,  और  फ़िर चेहरे  पर  मुस्कराहट  आ  जाए.  सब  कितना  फिल्मी  लग रहा  है  ना.  लेकिन  ऐसा  हुआ  है,  या  कह  लो  आज कल  हो रहा  है. 
किसी  ऐसे  के  आसपास  होना  जिसे  आप  पसंद  करते  हों,  एक  उत्साह भर देता  है  आप  में,  पेट  में  तितलियाँ  उड़ने  लगती  हैं. धड़कनें  तेज़  गति  ले  लेती  हैं,  और  बहुत  ही  समान्य  सी  घटना  रोमांचक  हो  जाती  है. 
सब  कुछ  ऐसे  ही  चल  रहा  था  बस  मैं  नहीं  चल  रहा  था.  मैं  रुक  गया  था,  नज़र को  नज़रंदाज नहीं कर  पा रहा  था,  बस  सब  नियंत्रण  खोता  चला  जा  रहा  था. 
बस  मैं  रुक  गया  था,  मेरे  सामने  से  गुज़रना,  उसने  भी अपने  तरीक़े  से  मुझे  आज़माना  शुरू  कर  दिया  था, मुस्कराहट  बहुत  प्यारी  है  उसकी,  थोड़े  गड्ढे बनते  हैं  गालों  पर  उसके,  आँखें  चमकने  लगतीं  है, नज़र उठा  कर  कभी  देख  ही  नहीं  पाया  नहीं  तो  कहता  प्यारी  सी  है. 
सब्र  अब  बेसब्र  हो  चला  था, 
कैसे  रोकना  है  इसे,  और  क्यों....
इसी  असमंजस  में  मन  था  कि 
तभी  उसने  आवाज़  दी,  और  मैं  मुस्करा  कर  उसके  पास  जा  कर  बैठ  गया. 

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