प्रशंसा पत्र
आओ बात करें उसकी। वो जो मैं हो सकती हूं, आप हो सकते हो, या ऐसा कोई भी हो सकता है जिसे ये कहानी छू जाए।
एक शाम यूं ही अपने बिल्डिंग के छत पर बैठा था वो। धीरे धीरे सूरज ढलते देख रहा था। देख रहा की किस तरह सूरज की लाल किरने अपनी लालिमा से सबको छूती हुई जैसे सबसे मिले अलविदा कह रही हों।
हवा भी बहुत तेज़ चल रही थी। बार बार आती तेज़ हवा जब उसे छू का गुजरती थी तो मानो कुछ कह रही हो। लेकिन पता नहीं, दिन भर उत्साह के साथ काम करने वाला वो आज इतना उदास क्यों बैठा है। क्यों वो हवा की भाषा समझ नहीं पा रहा था। किरणों की लाल छटा भी उसे अलविदा जैसे क्यों लग रही थी। क्या पता
हमेशा पेड़ पहाड़ प्रकृति की बातें और से बातें करने वाला, आज तो हवाओं को भी हार मनवा देगा। इतना उदास तो उसे तब भी नहीं देखा जब काम के सिलसिले में अपने परिवार से दूर सूदूर किसी नई जगह पर जाना पड़ा था उसे। आज उसकी मुस्कान कहीं गुम थी। वो चुप चाप बैठा था, हाथ में उसके एक कागज़ था।
ज्यादातर ऐसा होता है कि जब आप अपने काम के सिलसिले में किसी नई जगह जाते हैं तो थोड़े वक्त में आप उस जगह को और जगह आपको अपना लेती है।
लेकिन आज हवाओं का शोर और उसकी ख़ामोशी एक जगह हो कर भी एक दूसरे के विपरीत अपने अस्तित्व को बचा रहे थे।
आज शाखा में एक ग्राहक ने उसे एक प्रशंसा पत्र दिया जिसमे उसके कार्य निष्ठा की बहुत तारीफ़ की गई थी।
ये तो बहुत अच्छी बात थी फिर उसके मन में कौन सी उधेड़ बुन चल रही थी। ठीक सुबह 9 बजे वो घर से शाखा के लिए निकलता है रोज। और हर रोज 10 बजने से पहले मां फोन कर के पूछती है कि ठीक से पहुंच गया ना। और फिर वो अपने काम में लग जाता है। ये रोज़ की कहानी है। लेकिन आज तीन दिन हो गए थे, और मां का फोन नहीं आया था। पहले दिन उसने सोचा की घर जा के खुद बात कर लूंगा, लेकिन समय नहीं मिल पाया क्यूंकि शाखा से समय पर निकल नहीं पाया था। ऐसे ही तीन दिन बीत गए और आज उसको मिला ये प्रशंसा पत्र। ये बताने के लिए जब मां को फोन मिलाया तो पता चला की मां की तबियत ख़राब है इसलिए वो फोन नहीं कर रही थी की कहीं बेटा परेशान ना हो जाए और छुट्टी लेकर घर ना आए जाए। और तभी से वो एकदम ख़ामोश हुआ पड़ा है। हवाओं का शोर और उसकी ख़ामोशी एक दूसरे के आमने सामने। वो सोच रहा था की ये तो उसकी सराहना आज हुई है उसकी कीमत क्या है, उसका परिवार या उसका वक्त समझ नहीं पा रहा था वो। उसे खुश होना चाहिए था या कहीं न कहीं अपने फर्ज़ में पीछे हो जाने के लिए दुखी। इसी उथल पुथल में उसके अंदर इतना शोर था जो आज हवाओं के शोर को भी मात दे दे। लेकिन उसके ही भीतर के शोर पर भारी थी उसकी ख़ामोशी। आंखें मानो पत्थर हो गई थी। गले में अनजान सा दर्द था । अपने जीवन का उद्देश्य ही धूमिल जान पड़ रहा था। काफ़ी देर यूं ही सूरज को जाते देखा उसने और फिर आंखें बंद कर के ख़ुद से कहा कि हर चीज़ परफेक्ट हो ये तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है, तुम भी गलती कर सकते हो, चीज़े भूल सकते हो, अपने लिए सोच सकते हो। होना था... वो हो चुका है, जाने कब कोई कहां रुका है, बीती बातें फिजूल हैं।
और फिर उसने आंखें खोली और मुस्कुराया, एक लंबी सांस ली और अपने कमरे की तरफ़ लौट गया। मां को फोन मिलाया और लंबी बात की।
एक बहुत छोटी सी बात है लेकिन हम सब ये भूल बैठे हैं। We are human.. and we are allowed to make mistakes... To forget things... Nothing is perfect and lets not burden ourselves with this... ✌️
Nice
ReplyDeleteSuper se bhi upar
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